जाने क्यों एक अजीब-सा “डर” मुझे अब लगने लगा है..,
मेरी मोहब्बत का… तेरे एहसास को…
तेरी मोहब्बत का… मेरे एहसास को… खोने का डर….।
जाने क्यों लगने लगा है… जैसे सब कुछ भूल से गए है हम….,
जाने क्यों… लगने लगा है ….??
तेरा मुझसे.., मेरा तुझसे.., अब जुदा होने का डर बढ़ने है।
जाने क्यों लगने लगा डर… ,भटक ना जाऊं मैं मंजिल से.।
जाने क्यों लगने लगा डर… खो ना दूं यू पाकर तुमको…।
डर लगने लगा.. उन लोगों से ..जो दूर करने से लगे है हमको..।
डर लगने लगा उन बातों से….,जो तीरों-सी चुभने लगी है हमको.।
यह डर अंदर ही अंदर जाने क्यों घूटाएं जा रहा है…।
यह डर मुझे अब इतना सताए जा रहा है…..,
एक अंधेरे के आने का डर…..,मुझे जाने क्यों रुलाए जा रहा है….।
लोगों को लगता आने वाली है रोशनी…,
पर मुझे रोशनी से भी डर लगने लगा है….।
इस डर मैं सहमी बैठी में.., बस सहमी ही रह जाती हूं…।
इस डर मे डर-डर कर मैं.. कुछ भी ना कर पाती हूं…..।
यह डर मुझे जाने क्यों… इतना सताया जा रहा है…?
यह डर मुझे बस अंदर-ही-अंदर खाए जा रहा है।।