सिल रहे थे, जोड़ा आज हम..,
लोगों को खुशियों सा लगा..,
रंग था उसका गहरा लाल…,
जाने क्यूं ये कफ़न सा लगा..!
थी उसमें खूबसूरत कढ़ाई..,
जाने क्यूं.., सफेदी नजर आईं..?
हुई सिलाई उसकी जो…,
सिल- सिल आगे बढ़ता था…!
ख्याल आता…!
ये बिन सिला है सुंदर..,
सुना था.., कफ़न तो यारों..,
बिन सिला ही मिलता है…!
कोन कहता है रंग सफेद..,
बस कफ़न का होता है…?
लाल होते हुए भी यारों…,
मुझको तो वो.., कफ़न लगा…!
मेहबूब नहीं था पहनाने वाला..,
तभी सादगी भरा लगा..,
सजेगी दुल्हन.., लाल कफ़न में..,
जज्बातों का खून हुआ…!
आंसू बहे.., लब हंसे..,
लाल कफ़न में विदा हुए…,
कहां ना करते थे हम यारो.,
लाल ये रंग कफ़न का लगा..!
रंग बदला.., बस कफ़न का..,
कफ़न तो यारों कफ़न रहा….!!
Mashaa Allah
Bhut khub
Bhut khub